Wednesday, March 9, 2011

कंडोम के इस्‍तेमाल पर कट्टरपंथियों के खिलाफ खड़े हुए पढ़े-लिखे मुसलमान

नई दिल्ली. टीवी, सिनेमा देखने और कंडोम के इस्तेमाल के प्रश्न पर मुस्लिम समुदाय दो धड़ों में बंट गया है। जमीयत-उलेमा-ए-हिंद ने हाल ही में युवाओं को टीवी और सिनेमा से दूर रहने को कहा है और कहा है कि ए़ड्स से बचाव के लिए जो उपाय (कंडोम) बताया जाता है, वही समाज में युवाओं के पतन का मुख्य कारण है। लेकिन उदारपंथी धड़े ने इसकी मुखालफत की है।

जमीयत-उलेमा-ए-हिंद ने हाल ही में एक बैठक में प्रस्ताव पारित किया कि सभी गांवों और शहरों में मुस्लिम समाज को कमेटियां बनानी चाहिए, जो युवाओं को कड़ाई से धार्मिक रीति रिवाजों को मानने की शिक्षा दे और उन्हें टीवी, सिनेमा के अलावा दूसरे नैतिक रूप से भ्रष्ट करने वाले तरीकों से दूर रहने के लिए प्रेरित करे। लेकिन उदारवादी मुस्लिमों ने इसकी आलोचना की है।

ऑब्जेक्टिव स्टडीज संस्थान के चेयरमैन मोहम्मद मंजूर आलम ने कहा कि यदि युवा टीवी ही नहीं देखेंगे तो वे पीस टीवी और विन टीवी, जो मुस्लिम धर्म के बारे में शिक्षा देते हैं और जागरुक करते हैं, को भी नहीं देख सकेंगे। उन्होंने कहा कि टीवी चैनलों में ज्ञान और जानकारी की बातें भी आती हैं। अब युवाओं को अच्छे और बुरे के बीच अंतर करना होगा। लेकिन टीवी देखने से कैसे दूर रखा जा सकता है।

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से जुड़े हुए मुंबई के वकील वाईएच मुछाला ने कहा कि यदि इस प्रस्ताव का अर्थ यह है कि कंडोम का विज्ञापन करने वाली कंपनियां भड़काऊ विज्ञापन देती हैं तो यह तर्क माना जा सकता है लेकिन लेकिन शब्दों का चयन बेहतर होना चाहिए था। संगठन के प्रस्ताव से सही संदेश नहीं जा रहा है।

जामिया सेंटर फॉर दलित एंड माइनॉरिटी स्टडीजके प्रोफेसर मुज्तबा खान के अनुसार सरकार द्वारा कंडोम का प्रचार-प्रसार वैज्ञानिक आधार पर किया जाता है। फिर यह सभी धर्मों के लिए है, केवल मुस्लिम धर्म के लिए नहीं। यह तो जागरुकता का मामला है। यदि इन जानकारियों के साथ ही उन्हें मुस्लिम धर्म के बारे में शिक्षा दी जाए, तो उनमें जागरुकता आएगी।

जमीयत-उलेमा-ए-हिंद द्वारा पारित प्रस्ताव में मुस्लिम युवाओं के धर्म से भटकने पर भी चिंता जताई गई है। प्रस्ताव में कहा गया है कि मुस्लिम युवाओं में सेक्स, ड्रग्स का चलन काफी बढ़ गया है। मुस्लिम युवा पश्चिमी सभ्यता से ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं और यदि यह जारी रहा तो इससे धर्म की पहचान का संकट पैदा हो सकता है।  प्रस्ताव में आडंबरपूर्ण शादी की आलोचना की गई और दहेज प्रथा को पूरी तरह खत्म करने की बात कही।

फतवे को मानना बाध्यता नहीं
इस्लाम धर्म में फतवा उस सलाह अथवा दिशा निर्देश को कहा जाता है जोकि इस्लामी शरिया तथा इस्लामी कायदे-कानून को मद्देनज़र रखते हुए इस्लाम के किसी विद्वान द्वारा जारी किया जाता है। आमतौर पर फतवा जारी करने का अधिकार मुफ्ती या दूसरे मुस्लिम विद्वान को ही होता है। कुछ इस्लामिक संस्थाओं ने फतवा जारी करने के लिए विद्वानों की समिति गठित की है।

फतवा मात्र दिशा निर्देश अथवा सलाह की हैसियत ही रखता है यह आदेश कतई नहीं है। किसी फतवे को मानना आम मुसलमान के विवेक पर निर्भर है। इस्लामी धर्मगुरु समय-समय पर सामाजिक मुद्दों पर फतवे जारी करते हैं, जिनका उद्देश्य समाज का उत्थान होता है।

अक्सर विवादों में घिरे हैं फतवे
मुस्लिम विद्वानों ने एक फतवा जारी कर योग को गैर-मुस्लिम बताया गया। कुछ फतवों में औरतों को गैर-मर्दों के साथ बात करने के लिए भी मना किया गया है। ख़ुशबू, इत्र अथवा परफ्यूम महिलाओं को इस्तेमाल न करने की सलाह दी गई है। खनकती हुई चूड़ियां तथा पायल आदि पहनने को भी गैर इस्लामी बताया गया है। फतवे के अनुसार इन सब वस्तुओं के प्रयोग से मर्द औरतों की ओर आकर्षित होते हैं। फिल्म स्टार सलमान ख़ान द्वारा पूजा करने पर भी फतवा जारी हुआ।

वंदेमातरम गाए जाने के विरुद्ध भी फतवा जारी किया जा चुका है। संगीत सुनने, टीवी देखने तथा नाच गाने आदि के विरुद्ध भी फतवे आ चुके हैं। क्रेडिट कार्ड रखने, कैमरायुक्त मोबाईल फोन को भी फतवों में इस्लाम के खिलाफ बताया गया है। फतवों के अनुसार बीमा करना या कराना ब्याज आधारित व्यवस्था, जैसे बैंक आदि के खिलाफ भी फतवे जारी हुए हैं।


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